Scholarly open access journals, Peer-reviewed, and Refereed Journals, Impact factor 8.14 (Calculate by google scholar and Semantic Scholar | AI-Powered Research Tool) , Multidisciplinary, Monthly, Indexing in all major database & Metadata, Citation Generator, Digital Object Identifier(DOI)
संविधान लागू होने के लगभग 72 वर्षों में न्यायपालिका ने मौलिक अधिकारों की रक्षा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई हैं व्यवस्थापिका द्वारा बनाये गये कानूनों तथा कार्यपालिका के कृत्यों की व्याख्या संविधान के आधार पर करके न्यायपालिका ने नागरिकों के मौलिक अधिकार की रक्षा में निर्णायक कार्य किया है। हम यहां पर संविधान में उल्लेखित मौलिक अधिकारों की व्याख्या न्यायालय के विभिन्न निर्णयों के संदर्भ में कर रहे हैं।
भारतीय संविधान की खूबसूरती का एक कारण इसमें विस्तार से मौलिक अधिकारों का उल्लेख होना है। मौलिक अधिकारों की रक्षा के समुचित प्रावधान भी संविधान हैं। संविधान सभा में मौलिक अधिकारों पर पर्याप्त बहस देखने को मिलती है। 26 जनवरी, 1950 को संविधान लागू होते समय सात मौलिक थे, वर्तमान में छः मौलिक अधिकार है।
मूल अधिकार व्यक्ति के व्यक्तित्व विकास की न्यूनतम आवश्यकतायें है। मूल अधिकार राज्य के विरूद्ध प्राप्त होते है। यदि राज्य की स्थापना के सामाजिक समझौता सिद्धान्त का अध्ययन किया जाए तो उससे यह स्पष्ट होता है कि राज्य की स्थापना ही समाज में व्यवस्था को स्थापित करने अथवा मत्स्य न्याय (बड़ी मछली द्वारा छोटी मछलियो का आहार बना लेना) को समाप्त करने हेतु हई।भाग तीन को भारतीय संविधान का ’मेग्नाकार्टा’ कहा जाता है। दरअसल 1208 में इंग्लैण्ड के राजा द्वारा इंग्लैण्ड की जनता को दिये गये अधिकारों के दस्तावेज को ’मेग्नाकार्टा’ कहा जाता है। भारतीय संविधान के भाग तीन में भी नागरिकों के अधिकारों का उल्लेख होने के कारण इसकी तुलना ’मेग्नाकार्टा’ से की जाती है। कबीला सस्कृति के युग में सभी लोगों ने अपने अधिकार राज्य के पक्ष के त्याग दिये थे। लेकिन इससे राज्य रूपी सस्था ने शोषक का रूप धारण कर लिया। राज्य के शोषक स्वरूप के विरूद्ध लोगों द्वारा किये गये संघर्ष के फलस्वरूप लोगो को कुछ अधिकार दिये गये, उन्हें ही मूल अधिकार कहा जाता है। मूल अधिकार राज्य के विरूद्ध होने के कारण ही अधिकाश मूल अधिकारों की प्रकृति निषेधात्मक होती है।
मूल अधिकार मानवाधिकारों की तुलना में संकीर्ण है। क्योंकि मानवाधिकार मानव के मानव होने के नाते प्राप्त होते है साथ ही यह किसी देश की सीमा में बधे हुये नही होने के कारण सीमातीत होते है। जबकि मूल अधिकार नागरिकों को प्राप्त होते है। अधिकांश मूलाधिकार केवल देश के नागरिकों को ही प्राप्त होते है।
मूल अधिकार वाद योग्य है। इनकी रक्षा करने का दायित्व अनुच्छेद 32के तहत् उच्चतम न्यायालय का है एवं वह इनसे इन्कार भी नहीं कर सकता है। मूल संविधान में 7 मौलिक अधिकारों का उल्लेख था। वर्तमान में 6 मौलिक अधिकार है। 44 वें संविधान संशोधन द्वारा 1978 में ’सम्पत्ति का अधिकार’ को मूल अधिकार के रूप में समाप्त कर दिया गया है, अब ये एक विधिक अधिकार है जिसका उल्लेख संविधान के भाग ग्प्प्के अनुच्छेद 300 । में है।
मौलिक अधिकार एवं न्यायपालिका मौलिक अधिकार राज्य के विरूद्ध में प्राप्त होते है। इस कारण से इनकी प्रकृति निषेधात्मक होती है।
अनुच्छेद 12रू इसके अन्तर्गत ‘राज्य’ शब्द को परिभाषित किया गया है। वे सभी सस्थाएँ राज्य शब्द की परिभाषाओं में आती है, जिनकी स्थापना सरकार ने की हो या जो सरकार से वित्तीय सहायता प्राप्त करती हो।
अनुच्छेद 13 रू(प) में ये उल्लेखित है कि इस संविधान के लागू होने से पहले की कोई भी विधि यदि मौलिक अधिकारों के साथ असंगत हैं तो शून्य होगी।
Keywords:
Cite Article:
"भारतीय संविधान में मौलिक अधिकार और न्यायपालिका की स्वतंत्रता : एक विश्लेषणात्मक अध्ययन", International Journal of Science & Engineering Development Research (www.ijrti.org), ISSN:2455-2631, Vol.2, Issue 4, page no.261 - 272, April-2017, Available :http://www.ijrti.org/papers/IJRTI1704059.pdf
Downloads:
000205160
ISSN:
2456-3315 | IMPACT FACTOR: 8.14 Calculated By Google Scholar| ESTD YEAR: 2016
An International Scholarly Open Access Journal, Peer-Reviewed, Refereed Journal Impact Factor 8.14 Calculate by Google Scholar and Semantic Scholar | AI-Powered Research Tool, Multidisciplinary, Monthly, Multilanguage Journal Indexing in All Major Database & Metadata, Citation Generator